Wednesday 23 April 2014

रेत की लकीर पुस्तक से एक ग़ज़ल और हाज़िर है दोस्तों 
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ज़मीं से शम्स कभी जो क़रीबतर होगा 
सुलगती धुप में जलता हुआ नगर होगा 

अलामतें जो क़यामत की शक्ल ले लेंगी 
ज़मीं को चाटता फिरता हुआ बसर होगा 

वह दिन भी आयेगा इक दिन ज़रूर आयेगा 
रहेगा न साया कोई और न शजर होगा 

लरज़-लरज़ के ज़मीं पर गिरेगी सारी उम्मीद
किसी दुआ में न हरग़िज़ कोई असर होगा

फ़िज़ा में ज़हर भरा होगा आग बरसेगी
लहूलुहान तड़पता हुआ समर होगा

वह जिसने 'ज़ीनत' दुनिया तेरी बसायी है
उसी की नज़र परिंदों का बालो-पर होगा
--------------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

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