Monday 25 May 2015

मेरी एक ग़ज़ल 
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आग  खुद  में लगाये   हुए हैं 
दिल  में  उनको बसाये हुए हैं 

उसकी सरकार में इक सदी से 
अपने  सर  को  झुकाये हुए हैं 

जिसको होती नहीं मैं मयस्सर
मुझपे  तोहमत  लगाए  हुए  हैं  

हर सितम सह के भी ज़िंदगी का 
ग़म  में  भी  मुस्कुराये  हुए  हैं 

जो भी आता है उसके मुक़ाबिल 
उसको कद से गिराये हुए हैं 

उसकी चाहत में हम आज ज़ीनत 
अपना  सब  कुछ लुटाए हुए हैं 
----- कमला सिंह 'ज़ीनत'

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