Tuesday 15 August 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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क़िस्मत का मेरे यारों जब टूटा सितारा था 
इक  मेरे  सहारे  को  बस  मेरा  खुदारा था 

गर्दिश ने जो घेरा तो कुछ काम  नहीं आया 
कहने  के लिए यूँ तो  कश्ती  का सहारा था 

हम  सब्र से  बैठे  थे चीख़ा ना  गुज़ारिश की 
सर काट के ज़ालिम भी मज़लूम से हारा था 

हर शब् को उतरते थे हम पर ही कई आफ़त 
मुश्किल  की  घटाएँ  थीं घर एक हमारा था 

हर हाल में बस 'ज़ीनत ' हम ज़ेर रहे दम तक 
कोई   ना  सहारा  था  ,कोई  ना  हमारा  था 
----कमला सिंह ' ज़ीनत'

6 comments:

  1. मार्मिक विचार सोचने को विवश करती ,आभार ,"एकलव्य"

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  2. आपकी लिखी रचना  "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 23 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बेहतरीन ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीया ।

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  4. वाह!!!
    सुन्दर ....मर्मस्पर्शी....

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  5. हमारे एहसासों से गुज़रती बेहतरीन ग़ज़ल। बधाई।

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